अब न आएँगे रूठने वाले
दीदा-ए-अश्क-बार चुप हो जा
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हर माह लुट रही है ग़रीबों की आबरू
अब अपनी हक़ीक़त भी 'साग़र' बे-रब्त कहानी लगती है
लोग कहते हैं रात बीत चुकी
ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
तिरी नज़र के इशारों से खेल सकता हूँ
क़ाफ़िले मंज़िल-ए-महताब की जानिब हैं रवाँ
कल जिन्हें छू नहीं सकती थी फ़रिश्तों की नज़र
ख़ता-वार-ए-मुरव्वत हो न मरहून-ए-करम हो जा
छुप के आएगा कोई हुस्न-ए-तख़य्युल की तरह
भूली हुई सदा हूँ मुझे याद कीजिए
वक़्त की उम्र क्या बड़ी होगी
वो बुलाएँ तो क्या तमाशा हो