अब अपनी हक़ीक़त भी 'साग़र' बे-रब्त कहानी लगती है
दुनिया की हक़ीक़त क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
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तक़दीर के चेहरे की शिकन देख रहा हूँ
बात फूलों की सुना करते थे
एक शबनम के क़तरे की तक़दीर को
दुख-भरी दास्तान माज़ी की
मता-ए-कौसर-ओ-ज़मज़म के पैमाने तिरी आँखें
तेरी नज़र का रंग बहारों ने ले लिया
मैं ने लौह-ओ-क़लम की दुनिया को
क़ाफ़िले मंज़िल-ए-महताब की जानिब हैं रवाँ
एक बहकी हुई नज़र तेरी
मुस्कुराओ बहार के दिन हैं
झूम कर गाओ मैं शराबी हैं
है दुआ याद मगर हर्फ़-ए-दुआ याद नहीं