यही सहबा यही साग़र यही पैमाना है
चश्म-ए-साक़ी है कि मय-ख़ाने का मय-ख़ाना है
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फिर रह-ए-इश्क़ वही ज़ाद-ए-सफ़र माँगे है
नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में
हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते
हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे
आँख तुम्हारी मस्त भी है और मस्ती का पैमाना भी
गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगे
जो रहीन-ए-तग़य्युरात नहीं
सावन की रुत आ पहुँची काले बादल छाएँगे
नज़र करम की फ़रावानियों पे पड़ती है
ख़िरामाँ ख़िरामाँ मोअत्तर मोअत्तर