गुल अपने ग़ुंचे अपने गुल्सिताँ अपना बहार अपनी
गवारा क्यूँ चमन में रह के ज़ुल्म-ए-बाग़बाँ कर लें
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सैलाब-ए-तबस्सुम से दरमान-ए-जराहत कर
फिर रह-ए-इश्क़ वही ज़ाद-ए-सफ़र माँगे है
नज़र करम की फ़रावानियों पे पड़ती है
तेरे नग़्मों से है रग रग में तरन्नुम पैदा
गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगे
काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है
रातों को तसव्वुर है उन का और चुपके चुपके रोना है
सावन की रुत आ पहुँची काले बादल छाएँगे
हुस्न ने दस्त-ए-करम खींच लिया है क्या ख़ूब
यूँ न रह रह कर हमें तरसाइए
दोस्तो दुर्द पिलाओ कि कड़ी रात कटे
सज्दे मिरी जबीं के नहीं इस क़दर हक़ीर