इक अजनबी ख़याल में ख़ुद से जुदा रहा
इक अजनबी ख़याल में ख़ुद से जुदा रहा
नींद आ गई थी रात मगर जागता रहा
संगीन हादसों में भी हँसती रही हयात
पत्थर पे इक गुलाब हमेशा खिला रहा
दुनिया को उस निगाह ने दीवाना कर दिया
मैं वो सितम-ज़रीफ़ कि बस देखता रहा
इक अजनबी महक सी लहू में रची रही
नग़्मा सा जान-आे-तन में कोई गूँजता रहा
अब जा के ये खुला कि हर इक शख़्स दोस्तो
हर शख़्स को लिबास से पहचानता रहा
फ़िक्र-ए-सुख़न में रात जो आया ख़याल-ए-'मीर'
ता-देर डाइरी पे क़लम काँपता रहा
'साग़र' तमाम उम्र की गर्दिश के बावजूद
मैं उस निगाह-ए-नाज़ से ना-आश्ना रहा
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