हुस्न ही हुस्न का हर शहर में जल्वा होता
पोरियाँ मुर्ग़ पराठे कहीं हलवा होता
नाक छिलती न शिकस्ता कोई तलवा होता
बम बरसते न फ़ज़ाओं से न बलवा होता
पूरी दुनिया में हुकूमत जो ज़नानी होती
आलमी जंग जो होती तो ज़बानी होती
Ahmad Faraz
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क्यूँ दिल तिरे ख़याल का हामिल नहीं रहा
'साग़र' किसे बताइए ये वोल्टेज का हाल
देख के बोला हाथ मुनज्जम
गिर्या-ए-शैताँ
इक्कीसवीं सदी का आदमी
टेम्परेरी जॉब
रह-ए-हयात में बस वो क़दम बढ़ा के चले
मैं ने पूछा ये एक शाएर से
सारी जफ़ाएँ सारे करम याद आ गए
पड़ोसी की मुर्ग़ियाँ
रहेगा प्यासों से पानी का फ़ासला कब तक
कौन कहता है बुलंदी पे नहीं हूँ 'सागर'