गधों का मुशाएरे
इक रात मैं ने ख़्वाब में देखा ये माजरा
इक जा पे हो रहा है गधों का मुशाएरे
वो नीले पीले क़ुमक़ुमे मैदाँ हरा-भरा
बैठा है फ़र्श-ए-सब्ज़ पे इक सुरमई गधा
जितने गधे हैं सब के तख़ल्लुस हैं वाहियात
कोने में बैठी दुम को हिलाती हैं ख़र्रीयात
कुछ मोटे ताज़े ख़र थे कई लाग़र-ओ-नहीफ़
कुछ फ़न्ने-ख़ाँ गधे थे कई मेहरबाँ शरीफ़
कुछ ऐसे-वैसे और कई शाएरी के चीफ़
सरक़ा-पसंद आठ थे और दस ग़ज़ल के थीफ
ढेंचू में जिन की रंग था वो सारे हिट गए
वाक़िफ़ न थे जो सात सुरों से वो पिट गए
बाहोश जो गधे थे वो बैठे गधी के पास
'साग़र' भी जा के बैठ गए रस-भरी के पास
कद्दू सा सर लिए हुए छप्पन-छुरी के पास
इस्मत था जिस का नाम वो बैठी दरी के पास
बर्फ़ी सी थूथनी पे लिखे बंद दोस्तो
मुँह में ज़बान है कि शकरक़ंद दोस्तो
सीधी क़नौतियों में वो बंदों की आब-ओ-ताब
आवाज़-ए-शोला-वर में महकती हुई शराब
पलकों की चिलमनों में छुपे रौशनी के ख़्वाब
तोड़े पड़ा था जिस्म को उठता हुआ शबाब
क़द्रें थीं जिन के पास वो सर को झुकाए थे
जो मनचले गधे थे वो थूथन उठाए थे
माइक पे आ के शोर मचाते हुए गधे
पानों की जा पे घास चबाते हुए गधे
त्रिशूल ज़ेहन ओ दिल पे चलाते हुए गधे
दीवार नफ़रतों की उठाते हुए गधे
जो थे अरुज़-दाँ वो रिवायत में बंद थे
बे-बहरा जो गधे थे तरक़्क़ी-पसंद थे
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