अलाउद्दीन का तरबूज़
यक़ीं है जाए गी इक रोज़ जान दिल्ली में
तलाश करते हुए इक मकान दिल्ली में
तमाम दिन के सर-ए-राह हम थके-हारे
शिकम में चूहे उछलते थे भूक के मारे
बड़ा था मेरा शिकम दोस्तो मैं क्या करता
रक़म थी जेब में कम दोस्तो मैं क्या करता
चला ख़रीद के तरबूज़ सू-ए-दश्त हक़ीर
लगी जो पाँव में ठोकर सँवर गई तक़दीर
ग़म-ए-हयात की रातों में दिन निकल आया
गिरा जो हाथ से तरबूज़ जिन्न निकल आया
अदब से बोला कि अदना ग़ुलाम हूँ 'साग़र'
जो हो सके न किसी से वो काम हूँ 'सागर'
इशारा हो तो मैं रुख़ मोड़ दूँ ज़माने का
बना दूँ तुम को मैनेजर यतीम-ख़ाने का
मिरे सबब से लतीफ़ा मुशाइरा हो जाए
पलक झपकने में शाएर भी शाएरा हो जाए
गुनाह-ओ-शिर्क की रातों में आफ़्ताब मिले
इबादतें करें मुल्ला तुम्हें सवाब मिले
अगर मैं चाहूँ मुलेठी से रस-भरी हो जाओ
बग़ैर तीर चलाए पदम-श्री हो जाओ
मैं आदमी नहीं दुश्मन से साज़-बाज़ करूँ
अगर मैं चाहूँ तो अहमक़ को सरफ़राज़ करूँ
जो हुक्म कीजे तो मुर्दे में जान डलवा दूँ
मैं अहद-ए-पीरी में बीवी जवान दिलवा दूँ
बजाएँ सीटियाँ अब तल्ख़ियाँ ज़माने की
ये पकड़ो कुंजियाँ क़ारून के ख़ज़ाने की
नहीं है दिल की तमन्ना जहान दिलवा दे
मैं हाथ जोड़ के बोला मकान दिलवा दे
ये कह के घुस गया तरबूज़ में वो काला जिन्न
अजीब वक़्त है बिगड़े हुए हैं सब के दिन
ये सर्द सर्द फ़ज़ाओं का ग़म न सहते हम
मकाँ जो मिलता तो तरबूज़ में न रहते हम
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