बैठे हैं ऐसे ज़ुल्फ़ में कलियाँ सँवार के
बैठे हैं ऐसे ज़ुल्फ़ में कलियाँ सँवार के
आए हों जैसे उन के लिए दिन बहार के
ऐ तेज़-रौ ज़माने तुझे कुछ ख़बर भी है
लम्हे सदी बने हैं शब-ए-इंतिज़ार के
बाक़ी रहे न गुलशन ओ गुल और न आशियाँ
लेकिन हैं चार-सू वही चर्चे बहार के
ऐ रह-रवान-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ ख़मोश हो
सोए हैं सोने वाले शब-ए-ग़म गुज़ार के
ऐ सालकान-ए-अहल-ए-जुनूँ और तेज़-गाम
उठ उठ के देखते हैं बगूले ग़ुबार के
मेरे ख़ुदा शिकस्ता सफ़ीने की ख़ैर हो
हर मौज देखती है मुझे सर उभार के
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