ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
उस ने लिख लिख के मेरा नाम मिटाया होगा
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तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
गुलशन को बहारों ने इस तरह नवाज़ा है
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा
रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा