तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
ताज-महल बन जाए अगर मुम्ताज़ कहाँ से लाऊँगा
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ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
गुलशन को बहारों ने इस तरह नवाज़ा है
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए