तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
छूट गया है साथ तुम्हारा और अभी तक ज़िंदा हूँ
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देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया
गुलशन को बहारों ने इस तरह नवाज़ा है
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए