शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
परवाज़ न खो जाए इन ऊँची उड़ानों में
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ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे