शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
सारी ग़ज़लें बैठी होंगी अपने अपने मीर के पास
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शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा
ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया