किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
हर दर्द अभी बाक़ी है हर ज़ख़्म अभी ताज़ा है
Gulzar
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ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
गुलशन को बहारों ने इस तरह नवाज़ा है
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका