कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
क्या आग लगाओगे बर्फ़ीली चटानों में
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रात के अँधेरों को रौशनी वो क्या देगा
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले