इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
उस के हाथों से कभी फूल भी आया होगा
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बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
फूलों से बदन उन के काँटे हैं ज़बानों में
गुलशन को बहारों ने इस तरह नवाज़ा है
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा