देवता मेरे आँगन में उतरेंगे कब ज़िंदगी भर यही सोचता रह गया
मेरे बच्चों ने तो चाँद को छू लिया और मैं चाँद को पूजता रह गया
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ये जो दीवार पे कुछ नक़्श हैं धुँदले धुँदले
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
इतना नाराज़ हो क्यूँ उस ने जो पत्थर फेंका
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
धूप में ग़म की मिरे साथ जो आया होगा
शाम ढले ये सोच के बैठे हम अपनी तस्वीर के पास
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम