बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ
उड़ते ही शाख़ से कई सम्तों में बट गए
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Gulzar
Habib Jalib
Anwar Masood
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(679) Peoples Rate This
प्यास सदियों की है लम्हों में बुझाना चाहे
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
किस तरह भुलाएँ हम इस शहर के हंगामे
ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए
उस के जज़्बात से यूँ खेल रहा हूँ 'साग़र'
तुम क्या जानो अपने आप से कितना मैं शर्मिंदा हूँ
सामान तो गया था मगर घर भी ले गया
शोहरत की फ़ज़ाओं में इतना न उड़ो 'साग़र'
मुझ में और तुझ में है ये फ़र्क़ तो अब भी क़ाइम
कश्मीर की वादी में बे-पर्दा जो निकले हो
तुम से मिलती-जुलती मैं आवाज़ कहाँ से लाऊँगा