रोना मुझे ख़िज़ाँ का नहीं कुछ मगर 'शमीम'
इस का गिला है आई चमन में बहार क्यूँ
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शम-ए-हसरत जला गए आँसू
गर है नए निज़ाम की तख़्लीक़ का ख़याल
वो हसरत-ए-बहार न तूफ़ान-ए-ज़िंदगी
शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे
होश आया तो कहीं कुछ भी न था
उमीदें मिट गईं अब हम-नफ़स क्या
होना है दर्द-ए-इश्क़ से गर लज़्ज़त-आश्ना
बहार-ए-नौ की फिर है आमद आमद
जिस को दिल से लगा के रक्खा था
दश्त गुलज़ार हुआ जाता है