होना है दर्द-ए-इश्क़ से गर लज़्ज़त-आश्ना
दिल को ख़राब-ए-तल्ख़ी-ए-हिज्राँ तो कीजिए
Rahat Indori
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रोना मुझे ख़िज़ाँ का नहीं कुछ मगर 'शमीम'
उमीदें मिट गईं अब हम-नफ़स क्या
गर है नए निज़ाम की तख़्लीक़ का ख़याल
शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे
वो हसरत-ए-बहार न तूफ़ान-ए-ज़िंदगी
बहार-ए-नौ की फिर है आमद आमद
दश्त गुलज़ार हुआ जाता है
शम-ए-हसरत जला गए आँसू
जिस को दिल से लगा के रक्खा था
होश आया तो कहीं कुछ भी न था