पैग़ाम ज़िंदगी ने दिया मौत का मुझे
मरने के इंतिज़ार में जीना पड़ा मुझे
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ग़ज़ल उस ने छेड़ी मुझे साज़ देना
दर्द-ए-आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अब अंजाम नहीं
वो आलम है कि मुँह फेरे हुए आलम निकलता है
देखे बग़ैर हाल ये है इज़्तिराब का
मिरी नाश के सिरहाने वो खड़े ये कह रहे हैं
ख़त्म हो जाते जो हुस्न ओ इश्क़ के नाज़ ओ अदा
तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं
कल हम आईने में रुख़ की झुर्रियाँ देखा किए
जाना जाना जल्दी क्या है इन बातों को जाने दो
कोई आबाद मंज़िल हम जो वीराँ देख लेते हैं