मिरी नाश के सिरहाने वो खड़े ये कह रहे हैं
इसे नींद यूँ न आती अगर इंतिज़ार होता
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वो आलम है कि मुँह फेरे हुए आलम निकलता है
तड़प के रात बसर की जो इक मुहिम सर की
जाना जाना जल्दी क्या है इन बातों को जाने दो
कोई आबाद मंज़िल हम जो वीराँ देख लेते हैं
बनावट हो तो ऐसी हो कि जिस से सादगी टपके
दर्द-ए-आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अब अंजाम नहीं
ग़ज़ल उस ने छेड़ी मुझे साज़ देना
पैग़ाम ज़िंदगी ने दिया मौत का मुझे
दें भी जवाब-ए-ख़त कि न दें क्या ख़बर मुझे
जनाज़ा रोक कर मेरा वो इस अंदाज़ से बोले