ख़त्म हो जाते जो हुस्न ओ इश्क़ के नाज़ ओ अदा
शायरी भी ख़त्म हो जाती नबुव्वत की तरह
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बनावट हो तो ऐसी हो कि जिस से सादगी टपके
दर्द-ए-आग़ाज़-ए-मोहब्बत का अब अंजाम नहीं
कोई आबाद मंज़िल हम जो वीराँ देख लेते हैं
पैग़ाम ज़िंदगी ने दिया मौत का मुझे
मिरी नाश के सिरहाने वो खड़े ये कह रहे हैं
जनाज़ा रोक कर मेरा वो इस अंदाज़ से बोले
तड़प के रात बसर की जो इक मुहिम सर की
वो आलम है कि मुँह फेरे हुए आलम निकलता है
जाना जाना जल्दी क्या है इन बातों को जाने दो
तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं
दें भी जवाब-ए-ख़त कि न दें क्या ख़बर मुझे