ग़ज़ल उस ने छेड़ी मुझे साज़ देना
ज़रा उम्र-ए-रफ़्ता को आवाज़ देना
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ख़त्म हो जाते जो हुस्न ओ इश्क़ के नाज़ ओ अदा
जाना जाना जल्दी क्या है इन बातों को जाने दो
उर्दू-ए-मुअ'ल्ला
तड़प के रात बसर की जो इक मुहिम सर की
बनावट हो तो ऐसी हो कि जिस से सादगी टपके
वो आलम है कि मुँह फेरे हुए आलम निकलता है
जनाज़ा रोक कर मेरा वो इस अंदाज़ से बोले
कल हम आईने में रुख़ की झुर्रियाँ देखा किए
तालिब-ए-दीद पे आँच आए ये मंज़ूर नहीं
पैग़ाम ज़िंदगी ने दिया मौत का मुझे
दें भी जवाब-ए-ख़त कि न दें क्या ख़बर मुझे