इक ख़्वाब सा देखा था तो मैं काँप उठा था
फिर मैं ने कोई ख़्वाब न देखा उसे कहना
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ख़ुद-सर है अगर वो तो मरासिम न बढ़ाओ
मोहब्बतों में भी माल-ओ-मनाल माँगते हैं
अपने अहद-ए-वफ़ा से रु-गर्दानी करता रहता है
इस से पहले कि किसी घाट उतारे जाते
रस्तों पे न बैठो कि हवा तंग करेगी
सूने ही रहे हिज्र के सहरा उसे कहना
अपनी साँसें मिरी साँसों में मिला के रोना
शहर के लोग जिसे तेरी सितम-ज़ाई कहें
दीदा-ओ-दिल मिरी सरकार उठा लाए हैं
हुजूम-ए-यास में माँ की दुआ मिलती रही है