नहीं माँगते मस्ती-ए-जावेदाँ
हमें चाहिए मय मुदारात भर
Jaun Eliya
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Faiz Ahmad Faiz
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Mohsin Naqvi
Mir Taqi Mir
Gulzar
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बग़ौर देखो तो ज़ख़्मों का इक चमन सा है
बहुत जी तरसता रहा रात भर
रात कितनी बोझल है किस क़दर अँधेरा है
फिर कोई आ रहा है दिल के क़रीब
बहार आई है फिर पैरहन गुलाबी हो
ओस की तमन्ना में जैसे बाग़ जलता है
चारों ओर अब फूल ही फूल हैं क्या गिनते हो दाग़ों को
दुरुस्त है कि मिरा हाल अब ज़ुबूँ भी नहीं