बग़ौर देखो तो ज़ख़्मों का इक चमन सा है
बग़ौर देखो तो ज़ख़्मों का इक चमन सा है
सुकूत तिश्ना तमन्नाओं का कफ़न सा है
कभी खिल उठते हैं यादों के भी कँवल वर्ना
बहार में भी ये दिल इक उदास बन सा है
उभर रहा है जो नग़्मा बहार के दिल से
गुदाज़-ओ-सोज़ कुछ उस में तिरे बदन सा है
चमन से दूर चमन के हर इक ख़याल से दूर
खुला हुआ मरी आँखों में इक चमन सा है
नज़र नज़र में घुलावट है बद-गुमानी की
हुजूम-ए-माह में खिलता हुआ गहन सा है
है का'बा कितने समन-पोश नाज़नीनों का
ये दिल जो कहने को यूँ चाक-ए-पैरहन सा है
मिरा जुनूँ है अदब-आश्ना अभी वर्ना
हरम के पर्दे में भी एक बरहमन सा है
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