चार सू हसरतों की पहनाई
चार सू हसरतों की पहनाई
ज़िंदगी किस तरफ़ चली आई
आ ग़म-ए-ज़िंदगी कहाँ है तू
आरज़ू ले रही है अंगड़ाई
फिर वही तीरा-बख़्तियाँ अपनी
फिर शब-ए-ग़म है और तन्हाई
ग़ौर कीजे तो याद आएगा
थी कभी आप से शनासाई
जाइए आप कोई बात नहीं
आँख थी बे-ख़ुदी में भर आई
इबतिलाओं में क्या घिरे 'सफ़दर'
ज़िंदगी की रविश ही गहनाई
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