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ख़ूबसूरत मोज़े - सईदुद्दीन कविता - Darsaal

ख़ूबसूरत मोज़े

तुम ने मेरे पहुँचने से पहले

अपने ख़ूबसूरत मोज़े धो कर

अपनी बॉलकनी में बॉलकनी पर

सूखने के लिए डाल दिये थे

एक प्यासी चिड़िया

बॉलकनी पर बैठी

उस के क़तरों को

ज़मीं पर गिरने से पहले ही

उचक लेती थी

मेरी आहट पर

वो फिर से उड़ गई

तुम ने बॉलकनी में खुलने वाला दरवाज़ा बंद कर दिया

मौज़ूँ से टपकने वाली बूंदों को

मैं तुम्हारी हम-आग़ोशी में भी

देर तक सुनता रहा

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