साँस की धार ज़रा घुसती ज़रा काटती है
साँस की धार ज़रा घुसती ज़रा काटती है
क्या दरांती है कि ख़ुद फ़स्ल-ए-फ़ना काटती है
एक तस्वीर जो दीवार से उलझी थी कभी
अब मिरी नज़रों में रहने की सज़ा काटती है
तेरी सरगोशी से कट जाता है यूँ संग-ए-सुकूत
जिस तरह हब्स के पत्थर को हवा काटती है
क़त्अ करता है मिरे हल्का-ए-वीरानी को
नींद जो मोड़ पस-ए-ख़्वाब सिरा काटती है
यूँही गिरती नहीं अश्कों की सियाही दिल पर
अन-कहा लिखती कभी लिक्खा हुआ काटती है
चीख़ना चाहूँ तो डसती है ख़मोशी 'शारिक़'
चुप रहूँ तो मुझे ज़हरीली सदा काटती है
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