मैं भी अपनी ज़ात में आबाद हूँ
मेरे अंदर भी क़बीले हैं बहुत
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अंजाम
तुम से मिलने का बहाना तक नहीं
उज़्र हवा ने क्या रक्खा है
हिज्र तन्हाई के लम्हों में बहुत बोलता है
अपनी आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को
सोने के दिल मिट्टी के घर पीछे छोड़ आए हैं
चेहरा चेहरा ग़म है अपने मंज़र में
उसी के लुत्फ़ से बस्ती निहाल है सारी
तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो
रोज़ हवा में उड़ने की फ़रमाइश है
तआक़ुब