चेहरा चेहरा ग़म है अपने मंज़र में
और आँखों के पीछे एक नुमाइश है
Wasi Shah
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नज़र में रंग समाए हुए उसी के हैं
अपनी आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को
उसी के लुत्फ़ से बस्ती निहाल है सारी
रोज़ हवा में उड़ने की फ़रमाइश है
तआक़ुब
अंजाम
सोने के दिल मिट्टी के घर पीछे छोड़ आए हैं
इंतिज़ार
तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो
शाम के आसार गीले हैं बहुत
तुम से मिलने का बहाना तक नहीं