अपनी आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को
एक सन्नाटा कि गलियों में बहुत बोलता है
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शाम के आसार गीले हैं बहुत
इंतिज़ार
चेहरा चेहरा ग़म है अपने मंज़र में
उज़्र हवा ने क्या रक्खा है
सोने के दिल मिट्टी के घर पीछे छोड़ आए हैं
तुम से मिलने का बहाना तक नहीं
तआक़ुब
हिज्र तन्हाई के लम्हों में बहुत बोलता है
अंजाम
मैं भी अपनी ज़ात में आबाद हूँ
उसी के लुत्फ़ से बस्ती निहाल है सारी