नज़र में रंग समाए हुए उसी के हैं
नज़र में रंग समाए हुए उसी के हैं
ये सारे फूल उगाए हुए उसी के हैं
उसी के लुत्फ़ से बस्ती निहाल है सारी
तमाम पेड़ लगाए हुए उसी के हैं
उसी के हुस्न की परछाइयाँ हैं पत्तों पर
ज़मीं ने बोझ उठाए हुए उसी के हैं
वो जिस के क़ुर्ब से हर्फ़-ए-विसाल है रौशन
मिरे चराग़ जलाए हुए उसी के हैं
ये बारिशें भी उसी की हैं मेरी आँखों में
ये अब्र ज़ेहन पे छाए हुए उसी के हैं
ये आगही जो हमें यूँ हमारे हाल की है
ये सब कमाल सिखाए हुए उसी के हैं
ये तोड़-फोड़ ग़ज़ल में उसी के नाम की है
ये सारे शोर मचाए हुए उसी के हैं
हमारे लहजे में जो इक मिठास है बाक़ी
हमें ये ज़हर पिलाए हुए उसी के हैं
ब-जुज़ जमाल हमें और क्या दिखाई दे
नज़र पे पहरे बिठाए हुए उसी के हैं
उसी जबीं से निकलता है 'क़ैस' चाँद मिरा
ये आसमान सजाए हुए उसी के हैं
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