अपनी तलाश में निकले
बहुत गुमान है अपने वजूद का मुझ को
मगर कोई भी हक़ीक़त अयाँ नहीं मुझ पर
ख़िज़ाँ-रसीदा किसी बर्ग-ए-ना-तवाँ की तरह
गुमान ये कि सफ़र मेरे इख़्तियार में है
मुझे तो ये भी नहीं इल्म क्या है मेरी ज़ात
मैं जिस को ढूँढ रहा हूँ वो कौन है क्या है
वो चाहता है उसे ढूँढ लूँ अगर मैं भी
कोई निशान कोई रौशनी तो लाज़िम है
तो इस हक़ीक़त-ए-मख़्फ़ी को जानने के लिए
चलो ख़ुदा से कोई बात कर के देखते हैं
अगर ये पर्दा-नशीनी ही बाक़ी रखनी है
अगर तलाश का ये इम्तिहान जारी है
तो मेरे दीदा-ए-शब के सुकून की ख़ातिर
अता करे कोई हिकमत कोई हुनर ऐसा
कि जब मैं जागूँ
तो असहाब-ए-कहफ़ की मानिंद
न कोई पर्दा न इबहाम हो मिरे आगे
वो वक़्त आए कि मुझ से वो ज़ात खुल जाए
मिरे नसीब से इक आगही का दौर मिले
मिरे वजूद से ये काएनात खुल जाए
चलो उसी से पता उस का पूछ लेते हैं
चलो ख़ुदा से कोई बात कर के देखते हैं
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