किस के हाथों में हैं पत्थर कौन ख़ाली हाथ है
ये समझने के लिए शीशा सा बन कर देखना
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यक़ीं उठ जाए अपने दस्त-ओ-पा से
ग़म रात-दिन रहे तो ख़ुशी भी कभी रही
ये किस के हुस्न की जल्वागरी है
शहर के फ़ुट-पाथ पर कुछ चुभते मंज़र देखना
पहले वो क़ैद-ए-मर्ग से मुझ को रिहा करे