ग़म रात-दिन रहे तो ख़ुशी भी कभी रही
ग़म रात-दिन रहे तो ख़ुशी भी कभी रही
इक बेवफ़ा से अपनी बड़ी दोस्ती रही
उन से मिलन की शाम घड़ी दो-घड़ी रही
और फिर जो रात आई तो बरसों खड़ी रही
शाम-ए-विसाल-ए-दर्द ने जाते हुए कहा
कल फिर मिलेंगे दोस्त अगर ज़िंदगी रही
बस्ती उजड़ गई भी तो कीकर हरे रहे
दर-बंद हो गए भी तो खिड़की खुली रही
'अख़्तर' अगरचे चारों तरफ़ तेज़ धूप थी
दिल पर ख़याल-ए-यार की शबनम पड़ी रही
(529) Peoples Rate This