मआनी की तलाश में मरते लफ़्ज़
सेहन में फैली है
तल्ख़-तर रात की रानी की महक
कमरा-हैरत में
ख़्वाब की शहज़ादी
बाल बिखराए मिरे सीने पर
कब से इक ख़्वाब-ए-अबद में गुम है
लम्स की आँखों में
क़ोस-दर-क़ोस तिलिस्मात अजब ज़िंदा हैं
झड़ चुका है लेकिन
जिस्म की शाख़ से चेहरे का फूल
ज़ीस्त के जोहड़ में
ख़्वाहिश-ए-दरिया के
एक अम्र लम्हे को
सोचने की ये सज़ा कुछ कम है
कि जली हर्फ़ों में
लिख चुका है कोई
तीरा-ओ-तार अज़ल के किसी पस-ए-मंज़र में
जश्न-ए-नौरोज़ पे मामूल की इक मौत
हमारी ख़ातिर
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