और दिया जलता है ख़्वाब में
वही काएनात की फैलती हुई ज़ुल्मतें
वही सूरजों की है बेबसी
यही एक मंज़र-ए-रू-ब-रू
मिरे शश जिहात की दास्ताँ
मुझे लम्हा लम्हा निगल रहा है
मगर कहीं
मिरी ख़्वाब रात के आसमान पे कोई हाल-ए-नूर है
जो अज़ल से ता-ब-अबद फ़ज़ा-ए-फ़ना में दर्ज है ऐसी सत्र दवाम की
जिसे मस्जिदों के उजाड़ ताक़ तरस गए
जिसे ढूँडते कई दिन महीने बरस गए
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