ज़िक्र मेरा है आसमान में क्या
आ गया हूँ मैं उस के ध्यान में क्या
सब करिश्मे तअल्लुक़ात के हैं
ख़ाक उड़ती है ख़ाक-दान में क्या
चाँद तारे उतर नहीं सकते
रात की रात इस मकान में क्या
फिर चली बाद-ए-साज़गार मगर
कुछ रहा भी है बादबान में क्या
ज़िंदा है इक क़बीला-ए-क़ाबील
मैं रहूँ ऐसे ख़ानदान में क्या