शोरिश-ए-वक़्त हुई वक़्त की रफ़्तार में गुम
शोरिश-ए-वक़्त हुई वक़्त की रफ़्तार में गुम
दिन गुज़रते हैं तिरे ख़्वाब के आसार में गुम
क्या अजब थी वो फ़ज़ाओं में घुली बू-ए-क़दीम
शहर का शहर हुआ वहशत-ए-असरार में गुम
इस कहानी का भी उनवान कोई हैरत-ए-हुस्न
आईना अक्स में अक्स आईना-बरदार में गुम
देख ये आँख तिरी छब से हुई ख़ाकिस्तर
सुन समाअत है तिरी नर्मी-ए-गुफ़्तार में गुम
जो तिरे ख़ित्ता-ए-बे-आब की ख़्वाहिश न बना
कुलबुलाता है वो दरिया किसी कोहसार में गुम
अब तमन्नाओं के इसबात का सहते हैं अज़ाब
हम कि रहते थे कभी नश्शा-ए-इंकार में गुम
किस तरह उन पे ख़मोशी के मआनी खुलते
उम्र भर लोग रहे लफ़्ज़ की तकरार में गुम
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