मुँह फूल से रंगीं था व सारी थी उस हरी
खतरानी एक देखी मैं पनघट पे ज्यूँ परी
चीरी हैं उस की उर्बसी रम्भा ओ राधिका
प्रभू ने फिर बनाई नहीं वैसी दूसरी
मैं ने कहा कि घर चलेगी मेरे साथ आज
कहने लगी कि हम सूँ न कर बात तू बुरी
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रात दिन तू रहे रक़ीबाँ-संग
मिरा महबूब सब का मन हरन है
चौधवाँ उस चंदर का साल हुआ
ज़ुल्फ़ तेरी हुई कमंद मुझे
मेरी जाँ वो बादा-ख़्वारी याद है
रास्त अगर सर्व सी क़ामत करे
पेच भाया मुझ को तुझ दस्तार का
वही क़द्र 'फ़ाएज़' की जाने बहुत
उश्शाक़ जाँ-ब-कफ़ खड़े हैं तेरे आस-पास
तुझ को है हम से जुदाई आरज़ू