जब भी तिरी क़ुर्बत के कुछ इम्काँ नज़र आए
हम ख़ुश हुए इतने की परेशाँ नज़र आए
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हर शख़्स को ऐसे देखता हूँ
सुकूत-ए-मर्ग में क्यूँ राह-ए-नग़्मा-गर देखूँ
रश्क-ए-महताब जहाँ-ताब था हर क़र्या-ए-जाँ
यही नहीं कि फ़क़त तिरी जुस्तुजू भी मैं
अपनी आँखों से तो दरिया भी सराब-आसा मिले
तुम्हारा नाम किसी अजनबी के लब पर था
यूँ तो हर एक शख़्स ही तालिब समर का है
वो जिस का रंग सलोना है बादलों की तरह
उदास उदास सर-ए-साग़र-ओ-सुबू भी मैं
अज़मत-ए-फ़िक्र के अंदाज़ अयाँ भी होंगे
किस मुँह से ज़िंदगी को वो रख़्शंदा कह सकें