यही नहीं कि फ़क़त तिरी जुस्तुजू भी मैं
यही नहीं कि फ़क़त तिरी जुस्तुजू भी मैं
ख़ुद अपने आप को पाने की आरज़ू भी मैं
उदास उदास सर-ए-साग़र-ओ-सुबू भी मैं
यम-ए-नशात की इक मौज-ए-तुंद-ख़ू भी मैं
मुझी में गुम हैं कई तीरगी ब-कफ़ रातें
ज़िया-फ़रोश सर-ए-ताक़-ए-आरज़ू भी मैं
मुझी से क़ाएम-ओ-दाएम हैं घर के सन्नाटे
तुम्हारी बज़्म-ए-तमन्ना की हाव-हू भी मैं
निहाँ मुझी में है क़ातिल भी और मसीहा भी
कि चाक-ए-ज़ख़्म भी मैं सोज़न-ए-रफ़ू भी मैं
ख़ुद अपने आप में झाँकूँ तो मैं भी मैं न रहूँ
निगाह ख़ुद से हटाऊँ तो चार-सू भी मैं
जो राह चलते मिरी सम्त आँख भी न उठाए
उसी की बज़्म का मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू भी मैं
तुम्हारी बज़्म से उठने का भी ख़याल मुझे
ज़रा सी देर ठहरने का हीला-जू भी मैं
तिलिस्म-ए-दूरी-ओ-क़ुर्बत को तोड़ कर 'सादिक़'
पुकारता है कोई आइने से तू भी मैं
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