इस एहतिमाम से परवाने पेशतर न जले
इस एहतिमाम से परवाने पेशतर न जले
तवाफ़-ए-शम'अ करें और किसी के पर न जले
हवा ही ऐसी चली है हर एक सोचता है
तमाम शहर जले एक मेरा घर न जले
हमें ये दुख कि नुमूद-ए-सहर न देख सके
सहर को हम से शिकायत कि ता-सहर न जले
चराग़-ए-शहर नहीं हम चराग़-ए-सहरा हैं
किसे ख़बर कि जले और किसे ख़बर न जले
तिरी दलील बजा पर ये कैसे माना जाए
शजर को आग लगे और कोई समर न जले
शुऊर-ए-क़ुर्ब की ये भी है इक अजब मंज़िल
हम उस को ग़ैर की महफ़िल में देख कर न जले
ये शाम मर्ग-ए-तमन्ना की शाम है 'सादिक़'
कोई चराग़ किसी ताक़-ए-चश्म पर न जले
(579) Peoples Rate This