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एक इक लम्हा मुझे ज़ीस्त से बे-ज़ारी है - सादिक़ इंदौरी कविता - Darsaal

एक इक लम्हा मुझे ज़ीस्त से बे-ज़ारी है

एक इक लम्हा मुझे ज़ीस्त से बे-ज़ारी है

मेरी हर साँस सुलगती हुई चिंगारी है

क्या ही औराक़ मुसव्वर हैं किताब-ए-दिल के

ख़ून-ए-अरमाँ से हर इक सफ़्हे पे गुल-कारी है

ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं आँखों से लगा कर दिल तक

सोच में हूँ कि ये किस क़िस्म की दिलदारी है

ये सिमटते हुए साए ये लरज़ते दर-ओ-बाम

इक नई सुब्ह के एलान की तय्यारी है

हर क़दम पर नज़र आते हैं सलीबों के सुतून

ये कोई ख़्वाब है या आलम-ए-बेदारी है

क्यूँ उठें पाँव जुनूँ के सू-ए-मंज़िल 'सादिक़'

एक इक गाम सलासिल की गिराँ-बारी है

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In Hindi By Famous Poet Sadique Indori. is written by Sadique Indori. Complete Poem in Hindi by Sadique Indori. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.