फ़ुर्सत हो तो ये जिस्म भी मिट्टी में दबा दो
लो फिर मैं ज़माँ और मकाँ से निकल आया
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इस घूमती ज़मीन का मेहवर ही तोड़ दो
मुँह आँसुओं से अपना अबस धो रहे हो क्यूँ
उन की याद में बहते आँसू ख़ुश्क अगर हो जाएँगे
एक बार फिर
उठा ही लाया सभी रास्ते वो काँधों पर
एक वसिय्यत
जिस्म पर खुरदुरी सी छाल उगा
दरवाज़े को पीट रहा हूँ पैहम चीख़ रहा हूँ
अल्फ़ाज़ अल्फ़ाज़ ही हैं
उन्हें कह दो
अज़ाबों का शहर