अपने गले पे चलती छुरी का भी ध्यान रख
वो तेज़ है या कुंद ज़रा धार देख ले
Faiz Ahmad Faiz
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Gulzar
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उठा ही लाया सभी रास्ते वो काँधों पर
पलंग पर जो किताब ओ सिनान रख देगा
काट आगाहियों की फ़स्ल मगर
सीढ़ियाँ
फ़र्जाम
फ़ुर्सत हो तो ये जिस्म भी मिट्टी में दबा दो
वो एक चेहरा जो उस से गुरेज़ कर जाता
एक बार फिर
एक पुरानी नज़्म
मुँह आँसुओं से अपना अबस धो रहे हो क्यूँ
उन की याद में बहते आँसू ख़ुश्क अगर हो जाएँगे
ज़हर-ए-बाद