एक पुरानी नज़्म
कुछ नहीं जानता
किस तरह आ गया
मैं हवा के भयानक तिलिस्मात में
कोख से जिन की तौलीद पाते हैं बालिशतिए
रोज़-ओ-शब हर घड़ी
मुझ में दर आते हैं बे-इजाज़त
खुली देख कर खिड़कियाँ और दर
मौत और ज़िंदगी उन का एक खेल है
क्यूँकि हर एक बालिशतिया
मौत से क़ब्ल जाँ सौंप जाता है
अपने किसी जा-नशीं (दूसरे) को
दूसरा तीसरा
और फिर तीसरा चौथे बालिशतिए को
इस तरह मरते जीते निराकार बालिशतियों और उन के
तिलिस्मात का सिलसिला
जन्म से आज तक सोचता आ रहा हूँ
कितना मजबूर हूँ चाहता हूँ
मगर इन तिलिस्मात का अंत मैं देख सकता नहीं
और अन-देखे भी उन का सिर्र-ए-ख़फ़ी मुझ को मालूम है
इन तिलिस्मात का एक क़ैदी हूँ मैं
इन से बिछड़ा तो ला-रैब मर जाऊँगा
ये जो बिखरे तो मैं ख़ुद बिखर जाऊँगा
...और फिर अपना मुँह खोल कर
मुझ को सालिम निगल जाएगी
एक डाइन ज़मीं
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